Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



61. जैतवन में तथागत : वैशाली की नगरवधू

तथागत बुद्ध कपिलवस्तु से चारिका करते श्रावस्ती आए। उनके साथ महाभिक्षुसंघ भी था, जिसमें आयुष्मान् सारिपुत्त, आयुष्मान् महा मौद्गलायन, आयुष्मान् महा कात्यायन, आयुष्मान् महा कोद्विन्, आयुष्मान् महा कापियन, आयुष्मान् महा चुन्द, आयुष्मान् अनुरुद्ध, आयुष्मान् रैवत, आयुष्मान् उपालि, आयुष्मान् आनन्द, आयुष्मान् राहुल आदि संघप्रमुख स्थविर थे।

गृहपति अनाथपिण्डिक ने सुना। सुनकर बोधिपुत्र माणवक को बुलाकर कहा-"सौम्य बोधिपुत्र, जहां भगवान् हैं वहां जाओ और मेरे वचन से भगवान् के चरणों में सिर से वन्दना करके आरोग्य, अन आतंक, लघुउत्थान, बल, अनुकूल विहार पूछो और यह भी कहो-भन्ते, भिक्षुसंघ सहित भगवान् जैतवन में विहार करें तथा कल का भोजन भी स्वीकार करें।"

"अच्छा भो" कह बोधिकुमार माणवक जहां तथागत थे, वहां गया और अभिवादन कर उसने गृहपति का सन्देश कहा। तथागत ने मौन से स्वीकार किया। तब माणवक ने लौटकर गृहपति से कहा।

गृहपति ने उदग्र हो घर में उत्तम खादनीय-भोजनीय पदार्थ तैयार करवाए। जैतवन विहार के प्रदेश-मार्ग को अवदात धुस्सों से सीढ़ी के नीचे तक बिछवाकर सजाया-संवारा।

तब भगवान पूर्वाह्न समय चीवर पहिन भिक्षा-पात्र ले संघ-सहित जैतवन के द्वार पर पहुंचे। गृहपति द्वारकोष्ठक के बाहर खड़ा तथागत की प्रतीक्षा कर रहा था। देखते ही अगवानी कर भगवान् की वन्दना कर ले चला। जब बुद्ध निचली सीढ़ी पर पहुंचे तो खड़े हो गए।

गृहपति ने कहा-"भगवान् धुस्सों पर चलें। सुगत धुस्सों पर चलें, जिससे ये चिरकाल तक मेरे हित और सुख के लिए हों।"

परन्तु तथागत चुपचाप खड़े रहे। गृहपति ने दूसरी बार, फिर तीसरी बार भी कहा। तब तथागत ने आनन्द की ओर देखा।

आनन्द ने कहा-"गृहपति, धुस्से समेट लो। भगवान् चैल-पंक्ति पर नहीं चलते।" गृहपति ने धुस्सों को समेट लिया। तब तथागत बुद्ध ने आराम से प्रवेश किया और संघसहित बिछे हुए आसनों पर बैठे। तब गृहपति ने बुद्धसंघ को अपने हाथ से उत्तम खाद्य-भोज्य पदार्थों से सन्तर्पित किया। भगवान् के हाथ हटा लेने पर एक ओर बैठकर उसने कहा-

"भगवन्, जैतवन के विषय में कैसे करूं?"

"गृहपति, जैतवन को आगत, अनागत, चातुर्दिक भिक्षुसंघ के लिए प्रदान कर दे।"

अनाथपिण्डिक ने कहा-

"ऐसा ही हो भन्ते!"

तब महाश्रमण बुद्ध ने अनाथपिण्डिक के दान को अनुमोदित करते हुए गाथा कही-

"सर्दी, गर्मी और क्रूर जन्तुओं से रक्षा करता है। सरीसृप, मच्छर, शिशिर, वर्षा, हवा-पानी से बचाता है। आश्रय के लिए, सुख के लिए, ध्यान के लिए, विपथ्यन के लिए, संघ को विहार का दान श्रेष्ठ है। रमणीय विहार बनवाकर वहां बहुश्रुतों को बसाकर, उन्हें अन्न-पान-वस्त्र और शयन-आसन प्रसन्नचित्त से प्रदान करें।"

तब दर्भ मल्लपुत्र ने आकर तथागत से कहा-

"भन्ते, यदि अनुमति हो तो मैं संघ के शयन-आसन का प्रबन्ध करूं?"

"साधु, साधु, दर्भ! तू संघ के शयन-आसन और भोजन का प्रबन्ध कर?"

फिर उन्होंने भिक्षुसंघ को एकत्रित करके कहा-"भिक्षुओं, संघ दर्भ मल्लपुत्र को संघ के शयन-आसन का प्रबन्धक और भोजन का नियामक चुने।"

संघ ने दर्भ मल्लपुत्र को चुन लिया। तब मल्लपुत्र ने भिक्षुओं का एक-एक स्थान पर शयन-आसन प्रज्ञापित किया। जो सूत्रात्तिक थे उनका एक स्थान पर, जो विनयधर थे उनका दूसरे स्थान पर, जो धर्मकथित थे वे तीसरे स्थान पर, इसी प्रकार दर्भ मल्लपुत्र ने सम्पूर्ण भिक्षु-संघ को प्रज्ञापित किया। गृध्रकूट, चौरप्रताप, ऋषिगिरि की कालशिला, वैभार शृंग, सप्तपर्णी गुहा, सीतवन, सर्वशौंडिक, प्राग्भार, गौतम कन्दरा, कपोत कन्दरा, पोताराम, आम्रवन, मद्रकुक्षि, मृगदाव-सर्वत्र दर्भ मल्लपुत्र ने तेजोधातु की समापत्ति के प्रकाश में भिक्षुसंघ का शयन-आसन प्रज्ञापित किया। वे यत्न से प्रत्येक भिक्षु को बताते-यह मंच है, यह पीठ है, यह भित्ति है। यह बिम्बोहन है, यह कतर-दण्ड है, यह संघ का कतिक संथान है।

दर्भ मल्लपुत्र के अन्तेवासी भाण्डागारिक, चीवर-प्रतिग्राहक चीवरभाजक, यवागूभाजक, फल-भाजक, खाद्य-भाजक, शाटिक-ग्राहक, आरामिक-प्रेषक, श्रामणेर-प्रेषक आदि भिक्षु-संघ से चुने हुए भिन्न-भिन्न विहारों के लिए नियत हुए।

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1 Comments

fiza Tanvi

27-Dec-2021 03:46 AM

Good

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